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यात्रावृत्त

श्रीलंका का पागल कर देने वाला सिंधु-सौंदर्य

श्रीराम परिहार


कतरगामम् में रात्रि विश्राम एक आश्रम में होता है। आश्रम मंदिर का एक हिस्सा है। मंदिर स्वामी कार्तिकेय, माता देवयानी और माता वलीम्मा का है। मंदिर की 700 एकड़ भूमि है; जिस पर कब्जा बौद्धों का है। बाबा कल्याणदास जी ने वर्षों पूर्व इस क्षेत्र में आकर मंदिर की सुरक्षा की है। कल्याणदास जी की परंपरा में इस मंदिर में कई संतों ने अपनी सेवा देकर जीवन अर्पण कर दिया है। उनकी समाधियाँ मंदिर परिसर में हैं। वर्तमान में उस संत परंपरा में पूर्णानंद स्वामी जी हैं। मंदिर में और भी दो-चार सेवाभावी जन हैं। संत अपने जीवन का मर्म और जीने का धर्म जान लेते हैं। विशाल परिसर में स्वामी कार्तिकेय का मंदिर बना है। द्वार के दोनों ओर, द्वार के शीर्ष पर, मंदिर परिसर के परकोटे पर मयूर ही मयूर की आकृतियाँ हैं। मयूर कार्तिकेय का वाहन है। संपूर्ण श्रीलंका में यत्र-तत्र सर्वत्र मयूर नाचते-गाते-चलते-उड़ते देखे जा सकते हैं। यह क्षेत्र कार्तिकेय का है।

कार्तिक स्वामी जब कैलाश से चलकर इस क्षेत्र में आए तब उनका विवाह देवयानी से हो चुका था। यह क्षेत्र यक्षों, नागों और असुरों का था। उनका युद्ध एक शिकारी कबीले के सरदार से होता है। कार्तिक स्वामी उसे युद्ध में परास्त करते हैं। शिकारी की कन्या 'वली' रहती है। उससे कार्तिक स्वामी का विवाह होता है। वलीम्मा कार्तिकेय की दूसरी पत्नी है। अतः कार्तिकेय श्रीलंका के दामाद हैं। यहाँ के लोगों ने कार्तिक स्वामी को वापस भारत न जाने का आग्रह किया। वे उन्हें यहीं रोक लेते हैं। अतः कतरगामम् में उनका मंदिर है। मंदिर में पूजन है। दीप-धूप है। आस्था है। प्रसाद है। उत्सव है। नारियल की भेंट है। मंदिर की परिक्रमा है। मंत्रोच्चार है। पर गर्भगृह में स्थित मूर्ति ढँकी हुई है। द्वार पर पर्दा टँगा है। पर्दे पर ही चित्र बना है। बस उसी के दर्शन करते हैं। कार्तिक स्वामी के मंदिर परिसर में समुद्र-सिकता बिछी हुई है। पार्श्व भाग में विशाल बोधिवृक्ष है। बौद्ध जन वहाँ दीप जलाकर मथ्था टेककर अपनी-अपनी आराधना पूरी कर रहे हैं। कुछ धम्मपद का उच्चारण भी कर रहे हैं। मंदिर में टँगे पर्दे पर षटमुखी कार्तिकेय हैं। दाएँ-बाएँ देवयानी अम्मा और वलीम्मा हैं। देवयानी अम्मा और वलीम्मा के मंदिर परिसर में अन्यत्र भी बने हुए हैं। श्रद्धालु टोकरी भर-भर कर फल-फूल लेकर आते हैं। चढ़ाते हैं। केला, आम, पपीता, अनन्नास, का प्रसाद है। कमल पुष्प है। नारियल की भेंट है। कपूर की ज्योत है। दीप का प्रकाश है। अपने धर्म को बचाए रखने की अरदास है। मौन पसरा है। अद्भुत शांति है। प्लास्टिक थैलियों का उपयोग नहीं है। स्थान-स्थान पर कचरा पेटियाँ रखी हैं। कहीं भी कोई कागज, कोई छिलका, कोई वस्तु पड़ी हुई नहीं है। पूरा परिसर स्वच्छ, पवित्र और सुंदर है। वृक्षों पर से होती हुई प्रार्थना आकाश को जाती है, आकाश से प्रभु की कृपा बरसती है। आस्था जीवन को टूटने से बचाती है। विश्वास जीवन को गतिमानता देता है। श्रीलंका में जीवन सनातन धर्म के बचाव की जुगत में मौन अग्रसर है।

कहते हैं कतरगामम् से जो सघन वन लगा हुआ है, उसके राजा कार्तिक स्वामी हैं। कार्तिक स्वामी के प्रति तमिल हिंदुओं की अगाध श्रद्धा है। यह जंगल कार्तिकेय का होने के कारण इस जंगल के प्रति भी उनकी पावन श्रद्धा है। इसमें बहने वाली नदियों को पवित्र मानकर उसमें स्नान-पूजन किया जाता है। आज सोमवार है। पूर्णिमा है। अगहन सुदी पूर्णिमा का पावन दिन है। श्रीलंका में प्रति पूर्णिमा को अवकाश रहता है। अतः सारे लोग-लुगाई, बच्चे-बूढ़े दर्शनार्थ और पूजार्थ मंदिरों में बौद्ध मठों-विहारों में आए हैं। श्रद्धालु सामान्यतः सफेद वस्त्रों में दर्शनार्थ आते हैं। शुचिता और स्वच्छता उनका स्वभाव बन गया है। शांत चित्त रहकर पूजन-प्रार्थना करना कर्म बन गया है। अच्छा लगता है शुचितर व्यक्ति को देखना और कर्मरत व्यक्ति को पाना। श्रीलंका की प्रकृति भी शुचितर और शांत है। अद्भुत दौलत है श्रीलंका के पास प्रकृति की और उस पर विचरते मनुष्य की।

रावण ने अपने भाई कुंभकरण को यहाँ की व्यवस्था सौंपी थी। आज जहाँ राष्ट्रीय उद्यान है, यह पूरा क्षेत्र अनेक मंदिरों, पर्वत श्रेणियों और वन्यप्राणियों से धन्य है। इसकी शासन व्यवस्था तो रावण के पास थी, लेकिन इसकी नदियों से नहरें निकालकर पूरे क्षेत्र को जल सिंचन और कृषि व्यवस्था, लोक हितकारी न्याय आदि की योजना का संपूर्ण उत्तरदायित्व रावण ने कुंभकरण को सौंपा था। अभी भी मान्यता है कि इस सघन वनखंड से बहने वाली नदियों में जो स्नान करता है, उसे नींद बहुत आती है। वह बहुत सोता है। या सोने लग जाता है। जिन लोगों को अनिद्रा रोग है, उन्हें यहाँ आकर इस वन-सरिताओं में डुबकी लगा लेनी चाहिए।

श्रीलंका में पूरे देश में बारह प्रमुख नदियाँ हैं। एक बात ध्यान देने योग्य है कि नदियों को यहाँ गंगा कहा जाता है। श्रीलंका भारत का ही एक भाग था, अतः सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से इसकी धड़कनें श्रीलंका से हिमालय तक एक लय में धड़कती रहती थी। अभी भी श्रीलंका में जाकर जनजीवन और भूगोल को देखकर ऐसा नहीं लगता कि हम भारत से भिन्न देश में आ गए हैं। नदी का नाम 'गंगा' पूरे भारत में भी एक समय प्रचलित रहा है। गोदावरी को अभी भी दक्षिण गंगा कहा जाता है। महावेली गंगा, माणिक्य गंगा, काल गंगा, बेनटोट गंगा, नाल्वा गंगा, केलनी गंगा, कला गंगा, कुंभकरण गंगा, देदरु ओया, माल्वथ ओया, गल ओया और आरवी आरु (तमिल नाम) श्रीलंका को सहज-तरल बनाए हुए हैं। कुंभकरण गंगा 'याल' राष्ट्रीय उद्यान में से ही बहती है। इस क्षेत्र की व्यवस्था कुंभकरण के पास रही है, इसलिए इस वनप्रांत से बहने वाली नदी का नाम कुंभकरण के नाम पर पड़ गया है। पर यह संकेत है - रामायण काल के प्राकृतिक और चारित्रिक जीवित प्रसंगों से अतीत में समृद्ध श्रीलंका का। शैव और वैष्णव मतों का समवेत स्वर यहाँ गूँज रहा है। बौद्ध मत निर्बाध उभर रहा है।

कतरगामम् के कार्तिकेय मंदिर परिसर में अनेक वृक्ष हैं। नीम, बोधिवृक्ष और इमली के विशाल वृक्ष हैं। बेलपत्र भी कहीं-कहीं हैं। बेलपत्र के वृक्ष में इस समय अगहन-पौष (दिसंबर) में बेलफल लगे हुए हैं। भारत में बेलफल बैशाख-जेष्ठ में आते हैं। इसी तरह इसी समय श्रीलंका में आम का मौसम है। वृक्षों पर आम लटालूम लगे हैं। नाना आकार-प्रकार के आम शहर में दुकानों पर और वन क्षेत्रों-ग्राम्य क्षेत्रों में सड़क किनारे बिकने के लिए सुंदर-सुंदर रूप में सजे-धरे हैं। कबीट खूब फला हुआ है। आम, कबीट (कैथा), पपीता, केला, अनन्नास भारी मात्रा में फले हुए हैं। रास्ते के दोनों ओर हरीकच्च वनस्पति उत्साह में झूमती है। एक इंच भूमि भी हरियाली विहीन नहीं है। सड़क और आवासीय भूमि को इसमें न जोड़ें। शेष तो चमत्कारिक परिवेश, प्राकृतिक वैविध्य से पटा हुआ है। आँगन-चौगान में भी प्रत्येक घर में केला, कटहल, मुनगा, पपीता हँसता हुआ दिखाई देता है। आम तो प्रत्येक घर में अनिवार्यतः अपने रसमय रूप-स्वरूप से श्रीलंका के मानवों को अपने संबंधों में भी रसदार और मधुर बनाता है। विधाता की सृष्टि में आम न होता तो फलों का संसार अधूरा ही रह गया होता। माँ के स्तन के पयपान की तरह मनुष्य को रसपान कराने वाला तो एक ही फल है - रसाल। श्रीलंका की धरित्री रसालों से सौरभित और सुपुष्ट बनती है।

श्रीलंका की भूसंरचना बहुत मनमोहक है। धरती का रंग लाल और देह रेतीली है। लाल रेतीली मिट्टी में खूब फल, धान, सब्जियाँ होती हैं। समुद्र में मछलियाँ हैं। मछलियाँ ही मछलियाँ हैं। मछलियों के अनगिनत आकार-प्रकार, रंग-वर्ण, रूप-स्वरूप हैं। चारों ओर समुद्र से बातचीत करता, खिलखिलाता, अपनी प्रकृति को सहेजता, शिव, राम, बुद्ध की पूजा, संदेश और वाणी के अर्थ गुनता यह देश पृथिवी के मानचित्र पर अपनी हरिताभ छवि में अनूठा है।

कतरगामम् के कार्तिकेय मंदिर और बौद्ध मठ से कुछ ही दूरी पर प्रसिद्ध गणेश मंदिर है। मंदिर श्रीलंका की पवित्र नदी माणिक्य गंगा के तट पर स्थित है। माणिक्य गंगा के पूर्वी भाग में घना जंगल है। पश्चिम तट पर एक दम जलधार से सटा हुआ मंदिर है। मंदिर प्रांगण को माणिक्य गंगा अपनी जलधार से बार-बार धोती है। बड़े-बड़े कहू और अन्य प्रकार के पेड़ों की जड़ों से इधर-उधर से निकलकर कठोर काले पत्थर की चट्टानों पर से फिसलती-बहती माणिक्य गंगा बहुत मनमोहक है। नदी का अपना सम्मोहन होता है। फिर माणिक्य गंगा तो यहाँ उत्तर वाहिनी है। वन्या है। वन क्षेत्र से बहती आती है। गणेशजी के चरण पखारती है। वन प्रांत में बहती चली जाती है। समुद्र से मिलने को उतावली है। समुद्र प्रतीक्षा कर रहा है। माणिक्य गंगा की धारा-गति तेज और तेज हो जाती है।

प्रातः का सूर्य गणेश मंदिर के शिखर पर आलोक-वर्षण करता है। मंदिर प्रदीप्त हो उठता है। काले पत्थरों से तराशा हुआ विशाल मंदिर और भव्य हो जाता है। गर्भगृह में श्यामवर्णी प्रस्तर प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठित श्री गणेश अपने शुभत्व से संपूर्ण परिवेश और वायुमंडल को मंगलमय वरदान से पूरित कर रहे हैं। मंदिर में भीड़ है। प्रत्येक जन पान-फूल की टोकरी लिए खड़ा है। पर शांत और आस्था से भरा हुआ है। अपने विश्वास में अडिग है। अपनी भक्ति में अविचल है। कोई कोलाहल नहीं है। कोई धक्का-मुक्की नहीं है। कोई रेलमपेल नहीं है। दीप ही दीप जल रहे हैं। मंत्रोच्चार हो रहा है। भक्ति भाव में अनगिनत हाथ जोड़े हुए अनगिन पाँव खड़े हैं। अगणित मस्तक झुके हैं। असंख्य आँखें अपलक हैं। मौन मुखरित होता है -

आवाहयेतं गणराजदेनं रक्तोत्पलाभासमशेषवन्द्यम्।
    विध्नान्तकं विघ्नहरं गणेशं भजामि रौद्रं सहितं च सिद्धया।।

(जो देवताओं के गण के राजा हैं। लाल कमल के समान जिनके देह की आभा है। जो सबके वंदनीय हैं। विघ्न के काल हैं। विघ्न के हरने वाले हैं। शिवजी के पुत्र हैं। इन गणेशजी का मैं सिद्धि के साथ आवाहन और भजन करता हूँ।)

गणेश मंदिर के एकदम पास में वली अम्मा की गुफा है। यह वली अम्मा की जन्मस्थली भी है। वली अम्मा कार्तिक स्वामी की दूसरी पत्नी है। विशाल प्रांगण है। प्रांगण काले-रेतीले पत्थर की समतल चट्टानों से प्राकृतिक रूप से पटा हुआ है। इन्हीं चट्टानों पर वली अम्मा बचपन में खेला करती थी। पत्थर की विशाल चट्टानों की संधियों के भीतर घर बना हुआ है। पत्थरों का घर। घर ही रहा होगा, जो अब गुफा कहलाता है। गुफा में द्वार पर त्रिशूल गड़ा है। कार्तिकेय का आयुध भाला गड़ा हुआ है। गुफा में वली अम्मा का विशाल चित्र लगा हुआ है। परम शांति है। सभी मंदिरों में भेंट-पैसे चढ़ाने का कोई आग्रह नहीं है। पंडे-पुजारियों के द्वारा कोई लूट नहीं है। पंडों से विहीन और मुक्त हैं - संपूर्ण श्रीलंका के संपूर्ण मंदिर। यह बहुत अच्छी बात है। काश! ऐसा भारत में भी होता या अब भी ऐसा हो जाए।

दोपहर हो चली है। सूरज माथे पर से लुढ़कने लगा है। हमारा दल वहाँ पहुँच रहा, जहाँ लंका जलाने के बाद हनुमानजी ने पूँछ बुझाई थी। श्रीलंका के इतिहासविद् और रामायणकालीन स्थलों की खोज करने वाले विद्वान श्री तिरुचलवम् जी हमारे साथ हैं। वे प्रत्येक स्थल पर पहुँचने के पहले उसके बारे में जानकारी देते हैं और वहाँ पहुँचने पर उस स्थान के पौराणिक-ऐतिहासिक संदर्भ बताते हैं। वाहन दुर्गम मार्ग के कारण लगभग तीन किलोमीटर दूर ही खड़ा रह जाता है। हम पैदल जा रहे हैं। बाईं ओर सिंधु-गर्जन लगातार हो रहा है। आगे बढ़ते हैं तो देखते हैं कि वनस्पतियों का संसार समाप्त-सा हो गया है। सामने एक बहुत बड़ा समतल मैदान दिखाई देता है। वहाँ पहुँचकर पाते हैं कि मैदान लगभग पाँच किलोमीटर के वृत्त में होगा - उस पर कोई वृक्ष, कोई पौधा, कोई टीला, कोई चट्टान, कोई घर, कोई नदी-नद, कोई पक्षी, कोई पशु, कोई खंडहर, कोई अवशेष नहीं है। मिट्टी एकदम लाल है। ऐसी लाल जो भट्टी या तेज आग में जलकर रंग लेती है। मिट्टी जैसे जल गई हो, पत्थर अग्नि-दाह से काले पड़ गए हैं। समुद्र तट पर स्थित और समुद्र सतह से झाँकती चट्टानें भी गहरी काली हैं। जली हुई। लंका दहन की कहानी और पुराण की अमर गाथा को अपने में सँजोए हुए मैदान में, तट पर, सिंधु जल में बैठी हुई है। हनुमानजी की पूँछ में आग यहीं पर लगाई गई थी और लंका दहन के बाद समुद्र में कूदकर पूँछ भी यहीं बुझाई थी -

पूँछ बुझाई खोइ श्रम, धरि लघु रूप बहोरि।
    जनक सुता के आगे, ठाढ़ भयहुँ कर जोरि।।

लाखों वर्षों के बाद भी अब भी यहाँ कुछ पैदा नहीं होता। संपूर्ण मैदान में छोटी-छोटी घास है। घास के फूल हनुमानजी की विजय कथा और लंका के राजा रावण की नगरी की दाहक कथा कह रहे हैं। फूलों का रंग हल्का पीला है। घास का रंग हरा है। विशाल मैदान की सीमा के परे चारों ओर घनी झाड़ियों ने चारों ओर गोल घेरा बना रखा है। बीच में मैदान है। मैदान से लगा समुद्र उत्ताल तरंगों से आकुल है। अशांत है। लेकिन इसे गर्व है कि मारुतिनंदन की पूँछ की ज्वाला को शांत कर रामकाज में सहयोगी बना। यह लंका का धुर दक्षिण बिंदु है। यहाँ से धरती समाप्त है। भारत का यह माँ जगदंबा पार्वती की तपस्या-स्थली कन्याकुमारी का विस्तार क्षेत्र भी है। सेतुबंध रामेश्वरम से भारत श्रीलंका को जोड़ने वाला भूमिखंड का अंतिम भाग भी है। यह रावण की लंका का निचला हिस्सा है। यह सुंदर देश लंका का दक्षिण छोर है - जहाँ से भूमि समाप्त है - आगे केवल समुद्र है। अपरिमित जल राशि है। ठेठ दक्षिण ध्रुव तक कोई भूखंड नहीं है। यहाँ से नाक की सीध में समुद्र तैरकर जाएँगे तो सीधे दक्षिण ध्रुव में ही पहुँचेंगे। ऐसे समुद्र को मैं तट पर खड़े होकर प्रणाम करता हूँ। हाथ में जल लेकर आचमन करता हूँ। जल को शीश पर, मस्तक पर, आँखों पर, कंठ पर, हृदय पर छिड़कता हूँ। पाँव जल में हैं। मन में प्रार्थना है और आँखों में जल भर आया है।

उत्तर में जाकर हिमालय पर जमे जल को हिम रूप में और दक्षिण में श्रीलंका में जल को समुद्र रूप में फलित देखकर जीवन धन्य-धन्य हो उठता है। कृतज्ञता प्रकट होती है - जन्मदाता माता-पिता के प्रति कि उनके पुण्य से यह सब कर सका। जीवन का सौभाग्य उदित होता है, तभी तो जीवन को अनायास ऐसा अवसर मिलता है। जीवन का पुण्य पुनश्चरण पूर्ण होता प्रतीत होता है। यह पृथिवी धन्य है और प्रकृति ईश्वर का प्रकट विग्रह ही है। पृथिवी और प्रकृति दोनों को नमन है। पृथिवी और प्रकृति के बीच सृष्टि की अमर चरित्रावली धारण करने वाले श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान को कोटिशः प्रणाम है। रावण की विद्वत्ता को नमस्कार है। साँझ की लालिमा में समुद्र पीताभ हो उठता है। लहरें शांत हैं और तट मौन। हम लौट चलते हैं। पर कहाँ लौट पाते हैं? वह भूमि, वह समुद्र, हनुमानजी का सुकृत्य, हमारे द्वारा सिंधु तट पर बिताए क्षण सब कुछ भी हमारे साथ हैं। मैं अकेला नहीं हूँ। कितनी-कितनी स्मृतियाँ अमलतास की तरह खिल-खिल उठी हैं। पास की झाड़ियों में मयूर बोल रहा है। समुद्र गहरा-नीला हो चला है। उसी नीले समुद्र की सतह पर मैं रामकथा-प्रसंगों की नौका पर सवार होकर संतरण कर रहा हूँ। दूर कहीं तट पर स्थित प्रकाश-स्तंभ का आलोक मद्धम-मद्धम दिखाई पड़ता है। विचल-अविचल और अशांत-शांत होता चला जा रहा है।

श्रीलंका के दक्षिण छोर और हिंद महासागर, अरब सागर, बंगाल सागर के महामिलन के स्थल को प्रणाम करके हम लौटते हैं। हम जाते हैं दक्षिण-पूर्व तट पर जहाँ महावीर संजीवनी लाकर पर्वत पर उतरते हैं। संजीवनी का एक टुकड़ा इसी संजीवन-पर्वत पर टूटकर गिर जाता है। अँधेरा घिर रहा है। रात हो चली है। समुद्र से सटा हुआ एक सुंदर छोटा-सा पर्वत है। यहीं पर संजीवनी बूटी का भाग झड़कर गिर गया था। घने पेड़ हैं। पेड़ों के बीच-बीच इक्का-दुक्का घर बने हैं। बिजली के लट्टू टिमटिमा रहे हैं। गली सँकरी है। सड़क ठीक नहीं है। चढ़ाई-उतराई है। टीले पर महावीर की विशाल प्रतिमा है। केवल खड़ी प्रतिमा है। मंदिर है। चबूतरे पर प्रतिमा है। हम समवेत रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं। पवन-तनय बल पवन समाना। अनुभव करते हैं। पृष्ठ भाग में विशाल बौद्ध स्तूप बना दिया है। बौद्ध भगवान की प्रतिमाएँ भी हैं।

वहीं उसी जगह से थोड़ी दूरी पर उत्तर में घने वृक्षों के बीच सिंधु तट पर उसी पहाड़ पर महावीर की एक छोटी प्रतिमा और स्थित है। यह प्रतिमा उस पहाड़ी पर स्थित चट्टान पर है। काले पत्थर की कठोर पीठ पर खड़ी प्रतिमा है। उसी के दाएँ-बाएँ बौद्ध प्रतिमाएँ भी हैं। बौद्ध-भिक्षु श्रद्धालुओं के हाथों में सफेद धागा बाँध रहा है। हनुमान की प्रतिमा के नीचे छोटी-सी गुफा है। मार्ग सँकरा है। मैं जैसे-तैसे गुफा के द्वार तक जाता हूँ। गुफा में अँधेरा है। बिजली के प्रकाश की व्यवस्था नहीं है। मैं बातपेटी (मोबाईल) के प्रकाश में गुफा में दृष्टि दौड़ाता हूँ। देखकर भौंचक रह जाता हूँ। गुफा में कठोर पत्थरों के उबड़-खाबड़ भाग में जनक दुलारी माता सीता लेटी हैं। मुख पर दुख झलक रहा है। चिंतालीन हैं। दाएँ हाथ की कोहनी टिकी है और हथेली पर सिर रखा हुआ है। बायाँ हाथ प्रत्तर खंड को अर्धवलय आकार में लिए हुए है। दशा देखकर करुणा से भर उठता हूँ। माँ सीता का दुख अपरिमेय है। हम क्या अनुमान कर पाएँगे? बस राम ही समझ सकते हैं। 'सीता की अति विपति विशाला, बिनहि कहें भलि दीनदयाला।' राम की मर्यादा है। एकांतवासिनी सीता का पल-पल कैसे बीत रहा होगा। राक्षसों का पहरा। 'बिरह अगिनि तनु तूल समीरा, स्वास जरइ छन माहि सरीरा।' त्रास, वेदना, प्रताड़ना, भय, पीड़ा सबके चौतरफा आयुध सजे हैं। इन सबके बीच माता सीता ध्यान के कपाट बंद कर राम-राम जप रही हैं। दशा कही नहीं जा सकती है। बात 17 लाख वर्ष पुरानी है, लेकिन राम-सीता की अमरकथा धरती पर अभी पाषाणों, समुद्रों, पर्वतों, वनखंडों, भूमि-खंडों और जन-जन के हृदयों में बोल रही है। हम मन पर पत्थर रखकर लौटते हैं। लौटते हैं - विश्राम स्थल पर। रामचरितमानस के सारे प्रसंग मन में कोलाहल कर रहे हैं। रावण मरकर सो रहा है। श्रीलंका जाग रहा है। संस्कृति के मुख से श्रीराम-सीता की महागाथा गाई जा रही है। गाई जाती रहेगी।

समुद्र के किनारे-किनारे श्रीलंका के दक्षिण पूर्व, दक्षिण और दक्षिण पश्चिम भाग को विस्मित आँखों से निहारते हुए रात्रि में कोलंबो पहुँचते हैं। कोलंबो श्रीलंका की राजधानी है। समुद्र के किनारे उन्मुक्त विचरण करते हुए, खेलते हुए, दौड़ते हुए किसी किशोर-सा लगता है कोलंबो। जिसको अपने सजने-सँवरने की हुमस है। साफ-सुथरा रहने की समझ है। अपनी प्रगति की योजना और अपनी धरोहर को बनाए रखने का ज्ञान है। सममुच बहुत सुंदर, साफ-स्वच्छ और तरीके से बना-बसा है कोलंबो। कई जगह तो लंदन का भान होता है। गंदगी का नामों निशान नहीं। नालियों के दर्शन नहीं। पूरे शहर और पूरे श्रीलंका देश में प्लास्टिक की पन्नियाँ-थैलियाँ और सड़ी-गली वस्तु सड़क पर या सड़क किनारे पर पड़ी हुई दिखाई नहीं दी। नागरिकों को नागरिकता बोध है। अपनी सिंहली भाषा और तमिल भाषा के प्रति अनुराग है। अपने शैव, वैष्णव, बौद्ध मतों के प्रति आस्था है। उन्हें बचाए रखने और उनके विस्तार की उत्कंठा है।

कोलंबो में समुद्र है। विश्व प्रसिद्ध समुद्र तट है। समुद्र तट देखने लायक है। देखकर पागल कर देने वाला सिंधु-सौंदर्य। समुद्र के किनारे-किनारे रेल लाईन है। रेल है। स्टेशन है। रेलों में भीड़ नहीं है। स्टेशन पर रेलमपेल नहीं है। सब कुछ थमते-थमते चलता है। राष्ट्रपति भवन है। संसद भवन है। ट्वाइन नामक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (विश्व व्यापार केंद्र) है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का भवन 84 मंजिलों वाला है। यह श्रीलंका का सबसे ऊँचा आधुनिक सुंदर भवन है। यत्र-तत्र बजते सिंहली और तमिल भाषा के बजते गानों की धुनें भारतीय सिनेमा के गीतों की धुनों की याद दिलाती हैं। बोल भिन्न हैं। भाषा भिन्न है। धुन एक है। समानता है। व्यक्ति भूगोल और भाषा-आचरण के परे आत्मिक और भावात्मक स्तर पर समान या परस्पर निकट है। विभेद ऊपरी है। विभेद लड़ाई कराते हैं। विभेद मिटना चाहिए।

श्रीलंकावासी चावल के कई व्यंजन बनाकर खाते हैं। चावल हैं खेत में। नारियल हैं आकाश में। श्रीलंका के निवासी धरती-आकाश की वस्तुओं को जोड़कर भोजन बनाते हैं। धरती पर रहते हैं। आकाश को जीते हैं। सुबह चावल नारियल की चटनी के साथ खाते हैं। दोपहर का भोजन चावल एवं हरी सब्जियों या सब्जियों के रस का होता है। शाम को चावल की रोटी या ब्रेड करी के साथ लेते हैं। गाय, भैंस, बकरी का दूध होता है, लेकिन कम मात्रा में। डिब्बाबंद दूध ही अधिक उपयोग होता है। प्राकृतिक छटा चमत्कारिक है। प्राकृतिक परिवेश सम्मोहित करने वाला है। समुद्र का सौंदर्य, छवि, भंगिमाएँ वर्ण, रंग, विस्तार, लहरें, सूर्य का उगना, डूबना सब कुछ अवर्णनीय है। बस देखते ही बनता है। ''गिरा अनयन, नयन बिनु बाणी।'' एक अनुपम अद्भुत स्मृति हमेशा-हमेशा के लिए मन-मस्तिष्क पर छ्प जाती है। वह इस जीवन में हमेशा-हमेशा याद रहेगी। बार-बार और हर बार वह छवि याद आती है।


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